Monday, December 13, 2021

गंतव्य

 

मैं इक पत्थर था ,

किनारे से सटा था ,

इक दिन तुम नदी बनकर आयी ,

मुझे अपने  साथ बहा ले गयी ,

मैं बहता रहा तुम्हारे साथ ,

बहुत दूर तक ,

फिर एक घुमाव पर ,

तुमने मुझे फिर किनारे लगा दिया ,

तब से मैं  वही पड़ा हूँ ,

इस उम्मीद में कि ,

इक दिन फिर बरसात होगी ,

और तुम फिर ,

बहा ले जाओगी मुझे ,

अपने साथ ,

और इस बार ,

हम दोनों पहुंचेंगे ,

साथ अपने गंतव्य स्थान। 

Wednesday, November 24, 2021

बेतरतीब ज़िन्दगी

 बड़ी बेतरतीब है ज़िन्दगी न जाने कितने पैबंद है।  

उम्मीद के धागों से न जाने कितने रफ़ू करने है।। 


दिल के दरख्त स्याह हो चले है अब।  

रोशनी का इन्तजार न जाने कब से है।।


यूँ तो कट ही जाएगी ये उम्र तमाम " आनन्द " । 

कुछ नायाब पलों के इन्तजार में ज़िन्दगी कब से है।।


कसूर ज़िंदगी का नहीं है इसमें ,रोज़ जगाती रही।  

एक दौड़ में हमारी सनक हमें बस भगाती  रही ।।


पता है कुछ नहीं मिलने वाला है उस पार जाकर भी। 

जी लेता कुछ पल जी भर कर यही भूल सताती रही।।




Monday, November 8, 2021

बुराँश के फूल

 



सबके लिये अलग -अलग है ,

ये "बुराँश के फूल ",

किसी के लिए बचपन की यादें ,

किसी के लिए सूर्ख़ लाल फ़ूल ,

किसी के लिये प्रणय निवेदन ,

किसी को अक्स दिखाता ये फूल। 

 

किसी धार के भ्योह में खिलता ,

सबको ललचाता है ये फूल ,

खुद तक पहुँचने के लिये ,

संघर्ष कराते ये " बुराँश के फूल ",

चटक धूप में रंग बिखेरते ,

सबसे अलहदा है ये "बुराँश के फूल " ।

 

किसी विरहन को अपने से लगते ,

किसी के लिए चूसने वाले फूल 

कोई पंखुड़ियों से खेल खेले ,

रोगियों के लिए औषधि है ये फूल,

सबके लिये अलग -अलग है ,

ये अलबेले  "बुराँश के फूल " ।

Tuesday, September 14, 2021

धार

तुम जब आओगी मेरे पहाड़ ,

मैं तुम्हें उस धार में ले जाऊँगा ,

जहाँ से दिखता है हिमालय ,

और उससे आती इक नदी ,

दृश्य कितने नयनाभिराम ,

उस धार के ढुंग पर ,

बैठकर हम करेंगे ढेरों बात ,

मैं तुम्हे दूँगा इक बुराँश का फूल ,

जुड़े में गुँथने के लिये नहीं ,

खाने के लिये ,

हाँ , खाया भी जाता है ये फूल ,

ठण्डी हवाएँ बहती है उस धार में ,

उस धार में इक मंदिर भी है

कहते है - हर मन्नत पूरी होती है वहाँ ,

मगर , मुझे मत माँगना उनसे ,

माँगना अपनी खुशियाँ ,

और फिर उतर जाना ,

चली जाना समेटे यादों को ,

कभी मन करेगा तो ,

आ जाना - मैं वही मिलूँगा,

उस धार के पास ,

निहारते श्वेत धवल हिमकिरीट ,

और ऊपर मेरे नीला आकाश। 

 

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कुमाउँनी शब्द

धार - पहाड़ की चोटी

ढुंग - बड़ा पत्थर



Thursday, September 9, 2021

भस्मासुर

 

सर्वश्रेष्ठ कृति ईश्वर की ,

स्वंभू बुद्धिमान प्रजाति धरा की ,

खुद के विकास के लिये ,

ललक भस्मासुर बनने की।

 

चाह सब कुछ मुट्ठी में करने की,

नियंत्रण चाहता ब्रह्माण्ड की ,

ज़िंदा एक पतली सी डोर साँसो की ,

कर्म उसमे भी खलल करने की।

 

दौड़ रहा न जाने क्या पाने को ,

मर रहा तिल - तिल अमर हो जाने को ,

सीधी सी बात न आ रही समझ में ,

ढूँढ रहा रास्ता "भस्मासुर" बन जाने को।

 

Friday, September 3, 2021

बेज़ारी

 

हर घड़ी बदल रहा मंज़र , आबोहवा हलकान। 

लम्हा-लम्हा गुजर रहा सफर , बची रहे मुस्कान।।

 

चंद साँसो की लड़ी है ज़िंदगी, ख्वाइशें तमाम। 

ज्वार से उठता है मनोभावों का , मन परेशान।।

 

फ़क़त इक सफर तय करना है, सामान तमाम।

खाली हाथ आना -जाना , क्या नफा , क्या नुकसान।।

 

जो हाथ में है , सामने है - उसी पर इख़्तियार। 

कल की चिंता में हरदम , जीवन क्यों है बेज़ार।।


Thursday, August 19, 2021

याद

 

तेरी यादों को लेकर चलता हूँ ,

मैं रोज़ यूँ ही दिन चढ़ता हूँ ,

मायूसी छाती है गर कभी तो ,

वो बिताया पल याद करता हूँ।

 

रात को तेरी आँचल का साया ,

समझकर ओढ़ सो जाता हूँ ,

सपनों में तो तुम आती ही हो ,

तेरे माथे को चूम लेता हूँ।

 

मुश्किल तो है तुम्हारे बगैर ये सफर ,

नियामत है ज़िन्दगी समझ लेता हूँ ,

जितना चलना लिखा था तुम्हारे साथ ,

चला , वहीं याद बना , अकेले चलता हूँ।

 

पता है वो छाँव नहीं मिलेगी मुझे ,

न अब वो नरम स्पर्श नसीब में है ,

कुदरत का नियम कठोर है ये ,

रोज़ अपने दिल को बहलाता हूँ।

 

तुम कहती थी मैं विस्तार हूँ तुम्हारा ,

इसलिए रोज़ ये दिल धड़काता हूँ ,

माँ तुम बहुत याद आती हो ,

चुपके चुपके अकेले में बहुत रोता हूँ।

Thursday, July 22, 2021

मानसून

 

मानसून का इन्तजार सिर्फ हम ,

या धरा ही नहीं करते ,

हमारे घर के दरवाजे , खिड़कियाँ ,

भी बेसब्री से निहारती है आकाश को ,

बादलो के कड़कने से ,

उन्हें भी उम्मीद जगती है ,

वो भी तर होना चाहते है ,

बारिश के पानी से ,

जैसे वो पहले पेड़ रूप में ,

भिगोते थे खुद को ,

और फिर जड़ो से कैसे ,

भेजते थे तने से ,

पानी सारे पेड़ को ,

उसकी कोमल शाखों और ,

पत्तो तक , हरा भरा , निखरा

जैसे शृंगार कर उठता था ,

अब भले ही हमने उसे ,

काटकर बना लिए हो ,

अपने दरवाजे , चौखट ,

मगर अब भी वह तरसता है ,

बारिश के पानी को ,

खूब पीता है ,

मानसून ढलने पर ,

वह ख़ुशी से फूल  जाता है ,

इतरा कर थोड़ा टेड़ा हो जाता है,

खुद को तैयार करता है फिर ,

ठिठुरता है जाड़ो में ,

निष्ठुर गर्मियाँ सोख लेती है,

घाव दे जाती है हजार ,

अगली बारिश का इन्तजार ,

उसको भी होता है,

फिर मानसून का इन्तजार ,

उसको भी बेसब्री से होता है।  

Thursday, June 24, 2021

अंतर्मन की गिरह

 

अंतर्मन की गिरह सुलझे ,

तो कुछ लक्ष्य मिले ,

वर्ना जीवन पथ पर मुसाफिर ,

उलझे ही उलझे।

 

मन कुछ और कहे ,

दिमाग कहीं की राह पकड़े ,

आकर फिर किसी मोड़ पे ,

दोनों अटके रे अटके।

 

क्या सही , क्या गलत

दोनों अपने कयास लगाये,

नफा नुकसान लगाते ,

उलझन में भटके ही भटके।

 

एक मूल पर जब दोनों टिके ,

जीवन पथ कितना सुगम बने ,

आपाधापी जीवन की ,

सुकून मिले , सुकून मिले।

Monday, May 24, 2021

आँकड़े



आँकड़े दर्द बयाँ नहीं करते , 

वो सिर्फ सँख्या बताते है , 

सँख्या सिर्फ गणित का हिस्सा है,

कम -ज्यादा से किसी के गुनाह नहीं छिपते।  


आँकड़े पूरा सच कभी नहीं कहते,

छुपाये भी जा सकते है , 

और बढ़ाये भी जा सकते है , 

संख्या से सुख दुख कभी नहीं मापे जा सकते।  


मगर सरकारें अपनी सफलता विफलता  , 

इन्ही आँकड़ो से नापती है , 

नफा नुकसान का आँकलन करती है और , 

हर बार आँकड़ो के खेल में वही जीतती है।  


आँकड़ो का यह खेल , 

हर बार छुपा ले जाता है , 

अपने अंदर लाखो सिसकियाँ , 

मजबूरी, लाचारी और लापरवाहियाँ।    

 


Friday, May 7, 2021

 

ज़िन्दगी तू गा गीत कोई नया ,

साँसो को जोड़ने का जूनून नया ,

मन में भर दे आशा का तूफ़ान ,

छेड़ उम्मीद का कोई राग नया। 

 

मुश्किलें है मगर ये कोई नहीं नया ,

जिजीविषा से अपनी पहुँचे है हम यहाँ ,

दिया है सबल मानवता ने हरदम ,

सच्चे योद्धाओ के लिए तू बिगुल बजा। 

 

उम्मीद, हौंसले और आस से ,

एक नया मधुर संगीत बना ,

हर नजर तुझ पर टिकी अब ,

साँसो से साँसो का गठजोड़ बना। 

 

जीतेगी , जीतेगी हर हाल में ज़िन्दगी ,

हर सांस को तू थामे रखना ,

छिटक रहा है अँधेरा अब ,

तू सबको आस देना , हौंसला देना। 

Monday, March 22, 2021

मेरा यार अब शहर हो रहा है

 

अंदर से अकेला बाहर शोर से घिरा

दिल में कुछ सुकून की तलाश ,

बेहताशा भीड़ में भाग रहा है ,

धीरे धीरे ही सही निखर रहा है ,

मेरा यार अब शहर हो रहा है।  

 

लेकर हसरतो का पुलिंदा वो ,

बहती नदी सा थम रहा है ,

आजाद फिजायें दम घुट रहा है,

कदम दर कदम बढ़ रहा है ,

मेरा यार अब शहर हो रहा है।

 

हैं कुछ शुरुवाती चिन्ताएँ ,

सबब, धीरे धीरे ढल रहा है ,

फ़ीके से रँगो में उसके ,

चटकीला रंग चढ़ रहा है ,

मेरा यार अब शहर हो रहा है।

 

भूल कर वो अब पुरानी यादें ,

एक नयी यात्रा पर निकला है ,

इक छोटे से कुँए से अब ,

कश्ती लेकर समंदर में उतर रहा है ,

मेरा यार अब शहर हो रहा है।

 

लौटना तो चाहता है इस बियाबाँ से ,

गिरफ्त से इसके अब छूटना मुश्किल है,

दोराहे पर खड़ी ज़िन्दगी,

आदी होकर हवाले हो रहा है ,

मेरा यार अब शहर हो रहा है। 


Friday, March 12, 2021

ज़िन्दगी एक सफर है सुहाना

जंगल के बीचोबीच  ,

बाँज के पेड़ के नीचे ,

छाँव में ,

बैठकर ,

एक सूखी रोटी का निवाला ,

एक गुड़ की डली ,

मुँह में डालकर ,

वो देख रहा था ,

अपनी बकरियों को चरते ,

जो पूरे पहाड़ में टिमटिमा सी रही थी ,

पूरी दुनिया से बेखबर वो ,

पुराने से रेडियो में ,

आज के जमाने में ,

विविध भारती का ,

दोपहर का फरमाइशी कार्यक्रम ,

सुन रहा था ,

और बाकी दुनिया ,

कोरोना के डर ,

से दुबकी पड़ी थी ,

अपनी चारदीवारी के अंदर ,

बाहर जाने से कतरा रही थी ,

दो गज की दुरी ,

मास्क है जरुरी,

में पक चुकी थी ,

और वो मस्त मलंग ,

अपनी दुनिया में ,

अलमस्त ,

रेडियो पर उस वीराने में ,

मुरादाबाद के एक श्रोता की फरमाइश पर  ,

किशोर कुमार की आवाज में ,

अंदाज फिल्म से ,

शंकर जयकिशन का स्वरबद्ध ,

" ज़िन्दगी एक सफर है सुहाना ,

यहाँ कल क्या हो , किसने जाना ?"

गीत सुन रहा था।


Monday, February 15, 2021

मेरी कवितायेँ

 

मुझे पता है मेरी कवितायें ,

व्याकरण के नियमों पर खरी नहीं उतरती ,

साहित्य के मापदंडो पर कही नहीं ठहरती ,

न कोई गूढ़ रहस्य उजागर करती है ,

मगर फिर भी मैं लिखता रहता हूँ,

बेतरीब, लिखना मुझे अच्छा लगता है,

एक अधूरापन , एक खालीपन

कुछ कमियाँ  जैसा मेरी कविताओं में झलकता है ,

वैसा ही तो जीवन भी होता है ,

सब कुछ पूर्ण हो जाता तो ,

फिर क्या कविता और क्या जीवन ,

पूर्णता के बाद फिर क्या बचता है। 

 

Tuesday, February 2, 2021

बजट और मिडिल क्लास

 

हर बार टकटकी लगती है ,

उस लाल पोथी पर ,

फिर उम्मीद बंधती है ,

मगर धराशायी होती है।

 

हमेशा बजट में ,

उच्च वर्ग या निम्न वर्ग ही ,

छाये रहते है ,

मिडिल क्लास वाले ,

जाने किस उम्मीद में रहते है।

 

लम्बा चौड़ा भाषण ,

हजारो करोड़ों का आबंटन ,

जाने किसके हिस्से आता है ,

मिडिल क्लास फिर टैक्स भरने ,

जी जान से लग जाता है।

 

हर बार की यही कहानी है ,

मिडिल क्लास के आँसू नहीं , पानी है ,

ठगा सा जाता है हर बार ,

एक और सेस भरने की तैयारी है

 

हर बजट ये कह जाता है ,

मध्यम वर्ग तुम संघर्ष करो ,

सरकार तुम्हारे ही साथ है ,

मेहनत करो , कमाओ और ईमानदारी से टैक्स भरो ,

तुम्हारे लिए बजट में बस यही प्रावधान है।