Friday, March 8, 2019

मैं और मेरी नौकरी ( व्यंग्य कविता )




जब तुम मेरे पास नहीं थी ,
मैं तुम्हारे होने के सपने देखता था ,
सोचता था अक्सर ,
तुम मिल जाओगी ,
तो मेरा जीवन सुधर जायेगा ,
ज़िन्दगी की तमाम खुशियाँ मेरे ,
दामन में आ बिखरेंगी ,
और जीवन कितना सुहाना हो जायेगा। 

तुम आयी ,
जैसे मेरे पंखो को परवाज लग गए ,
सपने मेरे जैसे हकीकत में बदल गए ,
इज्जत में ऐसी बढ़ोत्तरी हुई ,
हम भी क़ाबिलो की कतार में खड़े हो गए। 

मगर ,
धीरे धीरे न जाने क्यों तुमसे बेरुखी सी होने लगी ,
न जाने क्यों रोज चिंता की लकीरें माथे पर पड़ने लगी ,
उस मय्यसर की चाहत धीमी पड़ने लगी ,
अपने को रोज़ एक कैदखाने में बंद सा पाने लगा ,
रोज़ एक ही ढर्रे पर चलने से मन उकताने लगा। 

फिर ,
दिमाग में एक अलग फ़ितूर सा छाने लगा ,
हरदम अपने को ठगा सा महसूस होने लगा ,
समय तुम्हारे साथ कुछ ज्यादा गुजरने लगा ,
एक डर सा हरदम साया बनकर रहने लगा ,
"तुम बनी रहो " हर तिकड़म करने लगा। 

परिणाम ,
तुम्हे साथ लेकर चलना मजबूरी बन गयी ,
"तुम्हारे न होने" की सोचकर भी रूह घबराने लगी ,
घर-बार , रिश्ते -नाते सब दूर होने लग गए ,
समय की कमी अब हरदम सताने लगी ,
खुद को साबित करने की  ,
हर रोज़ एक नयी " जंग " होने लगी। 

अब ,
बने रहें दोनों हर हाल में ,
मैं तो तेरा बिना अधूरा ,
तेरी चाहत में खड़े है लोग कई ,
मन , बेमन - अब कोई मायने नहीं रखता मेरे लिए ,
"नौकरी " तू बनी रहना - यही प्रार्थना मेरी।   

2 comments:

  1. Naukri ka vikalp tyar Karyie.

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  2. superb sir as usual...but we should not become slave to job as name inidicates"naukri"..we should think beyond that...

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