गुजर रहे है हम उस दौर से ,
सब कुछ धीरे -धीरे बदल रहा ,
नए मानक स्थापित हो रहे है,
पीछे बहुत कुछ छूट रहा।
पीछे जो छूट रहा है ,
उसमे कुछ सँभालने लायक भी है ,
मगर दौड़ इतनी भयंकर ,
सँभालने का वक्त किसको मिल रहा।
परिवार दरक रहा ,विश्वास हिल रहा ,
धैर्य हिचकोलों में फँसा हुआ ,
आस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह है,
ये कौन दिशा और दशा तय कर रहा।
प्रेम -स्वार्थ की बलि चढ़ रहा ,
अहं सिर चढ़ बोल रहा ,
बेवजह चिंताएं शरीर नाश कर रही ,
जो है हाथ में , वो भी खो रहा।
बेशक नए मूल्य गढ़ने चाहिये ,
परिवर्तन समय की दरकार भी है ,
मगर जिन मूल्यों पर खड़ा है जीवन ,
उनको सहेजना भी जरुरी है।
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