Wednesday, September 11, 2019

प्रेम की सीढ़ी



आईने में खुद को सज धज कर निहारती ,
उसकी आँखों में जैसे अजब सा सुकून था ,
झील सी आँखों के ऊपर उसने ,
काजल से जैसे तटबंध बनाये थे ,
गेसुओं को करीने से पीछे बाँध कर ,
महक लिए कुछ फूल गुँथे थे ,
गालो पर हल्का हल्का ,
गुलाबी मस्कारा लगाया था ,
खुद से आईने के सामने ,
शर्मा रही थी  ,
बड़े दिनों से सजने की ,
तमन्ना को जिये जा रही थी ,
किसी दूसरे से प्रेम करने से पहले ,
खुद से प्रेम करना सीख रही थी । 

उसे आज किसी और के लिए नहीं ,
खुद के लिए सज रही थी ,
बदल बदल कर कपडे वो ,
हर रंग के साथ निखर रही थी ,
खुद से अपने चेहरे पर ,
एक काला टीका भी लगा लिया ,
नजर न लग जाए खुद की ,
चेहरा सुर्ख गुलाबी  हो गया।  
खुद से प्रेम हो रहा था उसे ,
आज वो जैसे पूर्ण हो रही थी,
प्रेम की सीढ़ी जैसे ,
आज वह चढ़ रही थी ।

फोटो सौजन्य और आभार - गूगल 

3 comments:

  1. बेहतरीन,खुद से प्रेम ही सर्वोत्तम है।
    लाजवाब लिखा

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  2. ❤️❤️❤️
    भई वाह, क्या ख़ूब लिखा आपने...
    ख़ुद से ख़ुद को प्रेम करना...आइने में निखारना, ख़ुद पे इतराना, इठलाना और मीठे सपनों में खो जाना....प्रेम की ये विधा भी अद्भुत है और आपकी कल्पना, जादुई शब्द... मेरे मुँह से तो यही निकला....भई वाह 👌🥰

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  3. कविता ने मन को बाँध लिया .. क्या खूब लिखा है .. अंतिम पंक्तियों ने जादू कर दिया है ,,..

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