Wednesday, December 25, 2019

न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है





जब कभी अपनी हारो की सोचता हूँ , 
उस एक जीत के आगे सब फीका नजर आता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है। 

कभी शिकायतों का पुलिंदा जब खोलूं  , 
रहमतो का पलड़ा ज्यादा भारी नजर आता है  ,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

छाया हो घुप्प अँधेरा राहो में , 
टिमटिमाता कोई जुगनू नजर आता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

जब देखता हूँ मानवता पर संकट के बादल , 
किसी फ़रिश्ते का किस्सा पढ़ने में आ जाता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

देकर कभी थोड़ा निराशा के बादल , 
फिर किरणों से आकाश भर देता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

जब भी उठने लगता है विश्वास उस पर , 
उसका कोई चमत्कार आँखों के आगे आ जाता है  , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

रिश्तो से जब मन भर भर जाता है , 
कोई अजनबी सा रहनुमा बन खड़ा मिलता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

जब कभी अपने वजूद पर संशय   ,
उम्मीदों , दुआओं और आशाओ का अम्बार नजर आता है, 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है। 

उठ ही जाती है कलम बार बार , 
जब भावनाओ का ज्वार उठता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  



फोटो आभार - उमेश मेहरा ( मेरा छोटा भाई ), इसी छायाचित्र ने मुझे ये पंक्तियाँ लिखने के लिए विवश किया।  

Monday, December 9, 2019

यह दौर क्यों इतना संवेदनहीन कैसे ?

बीच में सड़क पर अधमरा औंधे मुहँ गिरा , 
बचते बचाते निकलते अपनी कारो से , बाइको से , 
नजर सी बचाकर देखकर , 
एक्सेलरेटर पर पाँव दबाते , 
ये दौर इतना सवेंदनहीन कैसे  ?

बस स्टॉप पर दस लोग खड़े , 
एक लड़की को छेड़ रहे दो लड़के , 
बालो से घसीट कर , 
अपनी कार में धकेलते , 
लोग यूँ ही खड़े रहे जैसे गूँगे और अंधे ,
ये दौर इतना सवेंदनहीन कैसे  ?

उन बूढ़े माँ बाप ने ज़िन्दगी खपा दी , 
जिस छत के लिए , 
अपना पेट काटकर , 
हर ख़ुशी दी अपने जिगर के टुकड़े को , 
एक दिन क्यों शर्म आती है उसको , 
अपने साथ रखने को ,
ये दौर इतना सवेंदनहीन कैसे  ?

उसके पास जज्बा था , 
समाज के लिए कुछ करना का , 
साथ किसी ने दिया नहीं - पागल कहते रहे , 
वो सफेदपोश जिसने कभी कुछ किया ही नहीं , 
वोट मांगने के अलावा , 
उसी के पीछे सब चलते रहे भेड़ो की तरह , 
ये दौर इतना सवेंदनहीन कैसे  ?

आग लगती है पड़ोस में , 
लगने दो , क्या फर्क पड़ता है हमको , 
फैली जब आग , जद्द में आया अपना घर तो , 
दुसरो की मदद की आस फिर कैसे ,
ये दौर इतना सवेंदनहीन कैसे  ?

Friday, October 18, 2019

वादा




तुमने वादा किया है मुझसे ,
मिलोगे मुझसे उस दिन ,
जिस दिन मैं जीवन से छक जाऊँगा ,
तृप्त हो जाऊँगा हर चीज से ,
फिर कोई मंजिल नहीं ,
कोई सफर नहीं ,
न कोई हड़बड़ाहट ,
बस शांति और असीम शांति ,
उस दिन हम मिलेंगे ,
और खूब बातें करेंगे। 

मैं भी जल्दी में नहीं हूँ ,
क्यूंकि अभी तो चलना शुरू किया है ,
अभी बहुत कुछ देखना है ,
कुछ अरमानो को धरातली रंग दिखाना है ,
कुछ एहसासो को कैद करना है दिल में ,
कुछ भावो को सतही कत्था चढ़ाना है। 

मिलूँगा , जरूर मिलूँगा , वादा किया है
मगर उससे पहले ये सफर तय कर लूँ ,
सफर में जो मिले , उसे आत्मसात कर लूँ ,
बताने के लिए कुछ तो इकठ्ठा कर लू पोटली में ,
वर्ना तुम समझोगे ,
क्या किया जीवन में ?

Saturday, October 12, 2019

जीवन समर


उतरे है जीवन समर में , 
तो डरना क्या , 
दिया है सिर ओखली में , 
तो मूसल से डरना क्या , 
कर्मो का परिणाम है वर्तमान , 
भविष्य के लिए घबराना क्या , 
मुकद्दर खुद लिखना होता है , 
दुसरो पर दोष मढ़ना क्या ,
जिद्द हो , जूनून हो 
तो क्या पर्वत , क्या आसमान 
क्या सागर की गहराइयाँ 
बैठे रहे तो फिर , 
सपाट रास्ते में भी खाइयाँ।  

हौंसला और विश्वास , 
और कर्म हो अगर साथ , 
भाग्य का बनना और बिगड़ना क्या , 
पुरषार्थ के आगे बेदम है , 
सब बाधाएँ और संकट , 
कर्मतप से पिघल जाये लोहा भी , 
जयगान जीवन का।  

Friday, September 13, 2019

अमावस की रात और कुछ जुगनू




वो अमावस की रात ,
जितना कालिख अपने में समेट सकती थी ,
समेटे , कितनी काली थी। 

दूर कृत्रिम  रोशनी  के जलते चिराग भी ,
जैसे अपनी रौशनी को अपने तक ही ,
समेटे , जुगनू से भी फीके थे। 

चाँद को भी जैसे आगोश में लेकर ,
तारो की चमक भी सोखकर ,
वो रात , सचमुच , भयानक अमावस की रात थी। 

मगर कुछ जुगनू अपनी ज़िद्द पर अड़े थे ,
मंडरा कर इधर उधर , बिना डर के ,
वो इस भयानक " अमावस " रात को चिड़ा रहे थे। 


बड़े जिद्दी और जुनूनी ये जुगनू ,
अपने अस्तित्व को दाँव पर लगाकर  ,
पहली किरण आने तक डटे रहने पर अड़े थे।  

Wednesday, September 11, 2019

प्रेम की सीढ़ी



आईने में खुद को सज धज कर निहारती ,
उसकी आँखों में जैसे अजब सा सुकून था ,
झील सी आँखों के ऊपर उसने ,
काजल से जैसे तटबंध बनाये थे ,
गेसुओं को करीने से पीछे बाँध कर ,
महक लिए कुछ फूल गुँथे थे ,
गालो पर हल्का हल्का ,
गुलाबी मस्कारा लगाया था ,
खुद से आईने के सामने ,
शर्मा रही थी  ,
बड़े दिनों से सजने की ,
तमन्ना को जिये जा रही थी ,
किसी दूसरे से प्रेम करने से पहले ,
खुद से प्रेम करना सीख रही थी । 

उसे आज किसी और के लिए नहीं ,
खुद के लिए सज रही थी ,
बदल बदल कर कपडे वो ,
हर रंग के साथ निखर रही थी ,
खुद से अपने चेहरे पर ,
एक काला टीका भी लगा लिया ,
नजर न लग जाए खुद की ,
चेहरा सुर्ख गुलाबी  हो गया।  
खुद से प्रेम हो रहा था उसे ,
आज वो जैसे पूर्ण हो रही थी,
प्रेम की सीढ़ी जैसे ,
आज वह चढ़ रही थी ।

फोटो सौजन्य और आभार - गूगल 

Monday, September 9, 2019

लिखने के लिए ये दौर कठिन है


लिखने के लिए ये दौर कठिन है ,
मन की लिखूँ तो ,
मनगढंत ,
सच लिखूँ ,
किसको इसकी फिक्र है ,
लिखने के लिए ये दौर कठिन है। 

चाटुकारिता करूँ ,
वाहवाही है ,
विरोध लिखूँ तो ,
तन्हाई है ,
प्यार लिखूँ तो ,
कहा अब वो गहराई है ,
रिश्तो में ,
कहा अब वो सच्चाई है ,
लिखने के लिए ये दौर कठिन है। 

फलसफों में कोई दम नहीं ,
पाखंडियो ने दूकान सजाई है ,
मानवता पर लिखने वालो ने ,
हालातो की सजा पाई है ,
शब्द भी अमर्यादित अब ,
वजूद से खोने लगे है ,
पढ़ने वाले भी अब ,
अपने हिसाब से पढ़ने लगे है ,
बिकने लगी है कलम ,
शब्द भी छल करने लगे है ,
सच्चे कलमकार ,
चुप रहने लगे है ,
लिखने के लिए ये दौर कठिन है। 

Thursday, August 22, 2019

आओ , कृष्णा



मानव मूल्य बिखर गए है ,
जीवन पथ भटक गया है ,
सच पर हो गया है झूठ भारी ,
जन्म लो फिर कान्हा , संकट भारी। 

कंसो की हिम्मत बढ़ गयी है ,
दुर्योधनो की बाढ़ आयी ,
आँखे मूदे भीष्म कई ,
धृतराष्ट्रो को अब तक बात समझ नहीं आयी। 

अर्जुन भूल चूका है लड़ना ,
भीम का खून नहीं खोलता ,
शिशुपालो को कोई नहीं रोक रहा ,
शकुनियों का खेल जारी। 

प्रेम के पैमाने बदल गए है ,
स्वार्थ ने अपनी जगह ले ली ,
कर्म से मोहभंग हो रहा ,
धर्म पथ पर चलना भारी। 

आओ , कान्हा , जन्म लो
गीता को फिर से कहना जरुरी ,
सो गए है अर्जुन सब ,
उनको जगाना है जरुरी ,
विश्वास फिर से जगे सत्य, धर्म पर ,
एक और महाभारत  जरुरी। 

 वादा तुमने ही किया था गीता में ,
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ,
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ,
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ,
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे,
अब निभाना जरुरी। 

Sunday, August 18, 2019

स्याही और कलम




स्याही ने कलम से पूछा , 
शब्द तो मुझसे उकरते है पन्ने पर ,
मगर बढ़ाई तेरी ही क्यों ? 
कलम  ने उत्तर दिया , 
तुझे अर्थपूर्ण आकार देता हूँ , 
खुद घिसकर  , 
वर्ना देख ले , 
एक बार कोरे पन्ने में यूँ ही बिखर कर।    

Tuesday, August 13, 2019

स्वतंत्रता की सीमा




स्वतंत्रता की भी एक सीमा है , 
जो बस एक सूत से बँधी है , 
महीन , 
नाजुक ,
कोमल , 
बस छूने भर से टूटती है।  

स्वतंत्रता है , 
अपने निर्णय ,
खुद अपना भाग्यविधाता बनने की , 
अपने कर्मो से , 
खुद का संसार रचने की।  

उस सीमा के बाहर , 
दूसरे की स्वतंत्रता शुरू होती है , 
जितनी बार , 
वो सूत टूटती है , 
उतनी बार स्वतंत्रता , 
अपना दम तोड़ती है।  

Saturday, August 10, 2019

सफर




यूँ तो चलना अकेले ही होता है ,
इस सफर में जिसे ,
हम ज़िन्दगी कहते है ,
मगर राहे - दोराहे पर ,
मिलते चले जाते है ,
कुछ साथी ,
चलते है कदम दर कदम ,
फिर कुछ छूट जाते है ,
और कुछ नए मिल जाते है ,
कुछ सबब दे जाते है ,
कुछ सबक ,
कुछ रास्ते सपाट से ,
कुछ में चुभते कंकड़ ,
कुछ खट्टी ,
कुछ मीठी यादो से ,
चलता रहता है सफर ,
तलाश में मंजिल की।

Wednesday, July 24, 2019

मन के मौसम हजार


मन के मौसम हजार ,
बदलते बार बार ,
कभी जेठ की दुपहरी सा ,
कभी सावन की फुहार। 

कभी ठंडा जनवरी सा ,
कभी मार्च की पुरवाई ,
कभी शांत समदंर सा ,
कभी नदियाँ की अंगड़ाई। 

कभी बंजर धरती सा ,
कभी खिले फूलो के उपवन सा ,
कभी जोश भरा लबालब ,
कभी पतझड़ सा। 

कभी डूबा डूबा सा ,
कभी हर कोना खाली सा ,
कभी बजती शहनाई ,
कभी मौसम रुसवाई सा। 

कभी गुस्से सा ,
कभी प्यार के सागर सा ,
घड़ी घड़ी  बदलता रहता है ,
चंचल है चकोर सा ।    


Sunday, July 14, 2019

यूँ ही बेवजह

यूँ ही बेवजह ज़िन्दगी को , 
मत उलझाइए , 
सीधी और सरल है , 
बस चलते जाइये।  

जो मिलेगा , 
वो मुकद्दर , 
जो नहीं मिलेगा , 
उस पर किसी और का हक़ , 
अपनी तरफ से , 
मंजिल की ओर , 
कदम बढ़ाते जाइये।  

दे अगर साथ कोई , 
नसीब आपका , 
नहीं तो , 
अकेले ही , 
चलते जाइये।  

हार जीत , 
सफलता असफलता , 
खोना -पाना ,
मन के भाव है , 
सीख कर कुछ फलसफे , 
मुस्कराहट होठों पर लेकर , 
आगे बढ़ जाईये।  

ये ज़िन्दगी है , 
रोज़ नए रंग दिखायेगी , 
कूची आपके हाथ में , 
अपने जीवन का चित्र, 
खुद बनाइये।  

Friday, July 12, 2019

जल



सलिल कहो या पय ,
मेघपुष्प या पानी, 
वारि कहो या नीर , 
तोय या उदक , 
मैं जल हूँ , जीवन हूँ।  

स्वादहीन , 
गंधरहित , 
आकारविहीन , 
पारदर्शी महीन, 
मैं जल हूँ , जीवन हूँ।  

बूँदे बनूँ तो बारिश , 
धार बनूँ तो नदियाँ , 
शांत पड़ा रहूँ  तो सागर , 
उमड़ घुमड़ में बादल, 
मैं जल हूँ , जीवन हूँ।  

प्यासे के लिए अमृत , 
धरा के लिए सखा , 
सागर से लिपटा , 
शिखरों में फैला स्वेत धवल , 
मैं जल हूँ , जीवन हूँ।  

सर्वत्र , 
सर्वव्यापी , 
स्वछंद , 
अनमोल मगर सीमित हूँ , 
मैं जल हूँ , जीवन हूँ।  

संभाल सको ,
तो जीवन हूँ , 
न संभला , 
तो प्रलय हूँ , 
मैं जल हूँ , जीवन हूँ।

Tuesday, July 9, 2019

डिजिटल युग ( हास्य )


डियर  शायद तुम उदास हो , 
क्यूंकि दो दिन से तुमने स्टेटस में कुछ डाला ही नहीं , 
डियर  शायद तुम कुछ दिनों से सजी संवरी नहीं , 
इंस्टाग्राम पर तुम्हारा कोई नया फोटो आया ही नहीं , 
शायद तुम्हे किसी के ऑनलाइन आने से डर लग रहा है , 
क्यूंकि व्हाट्सएप्प पर तुम्हारा लास्ट सीन घंटो से बदला ही नहीं।  

डियर  शायद तुम किसी बात से खफा हो , 
वर्ना फ़ोन स्विचड ऑफ तुम करती नहीं  , 
शायद कही घूमने भी नहीं जा पायी हो , 
फेसबुक में कुछ अपडेट आया ही नहीं।  
ट्विटर  पर फॉलोवर घटने लगे है , 
तुम्हारा ट्वीट अब वायरल होता ही नहीं।  


अब तो तुम्हारा हाल ऑनलाइन देखकर ही समझ लेता हूँ , 
फिर भी तुम कहती हो - मैं तुम्हारी  चिंता  नहीं करता हूँ।  

Friday, July 5, 2019

बारिश की पहली बूँद

बारिश की पहली बूँद 
जब धरा पर गिरी , 
सूखी मिट्टी ने उड़कर , 
उसे गले लगा लिया , 
रच बस कर जब दोनों गिरे , 
धरा पर , 
सावन आ गया।  

सोंधी सी सुगंध , 
मिट्टी बौरा गयी , 
बादलो ने देखो , 
उसकी झोली भर दी, 
लहलहा उठा , 
तन मन , 
कपोले उसके सीने से , 
फूट पड़ी , 
आलिंगन कर बारिश का , 
देखो ! धरा सज गयी।  

निर्लज्ज , बेवफा 
कितनी देर लगा दी , 
बूँदो तुमने धरा की , 
जान हलक में ला दी ,
आये हो अब तो , 
निहाल कर दो , 
कण कण में समा कर , 
 " मिट्टी " को सोना कर दो।   

Sunday, June 23, 2019

मेरे दस "शेर"


1
अच्छा है ,  दिमाग को भूलने की बीमारी है
सोचो , सब याद रहता तो न जाने क्या होता। 

2
कुछ मसले , यूँ ही हल नहीं होते। 
एक ही समय में , दोनों को "मैं " नहीं " हम " होना पड़ता है। 

 3
बदलते दौर में  इश्क की बुनियाद , हिल सी गयी है ,
रूहानी न होकर अब , जिस्म पर टिक गयी है। 

4
उड़ेंगे वही जिनके पंख होंगे ,
चाहने भर से आसमां नहीं नापा जाता। 

5
किसने कहा "वो " नहीं सुनता ,
दिल से आवाज कब लगाई थी।

6
मत मुस्करा किसी की लाचारी पर ,
वक्त ने पढ़ाया है पाठ कइयो को। 

 7
जो खाते थे कसमें हर हाल में साथ निभाने की ,
ग़ुरबत के दिन क्या आये , निकल लिए। 

8
सुना था तेरा शहर बड़ा संजीदा है ,
एक चौराहे से अभी अभी बचकर लौटा हूँ मैं। 

9
किताबी बातों को सच मान लेते तो ,
न जाने कैसे जीते इस जहाँ में। 

10
"सच" बोलते है ,
इसीलिए बहुतो को खटकते है। 

Wednesday, June 19, 2019

चुड़ैल



कहते है वो भुतहा महल है , 
वहाँ एक चुड़ैल रहती है , 
मर गयी थी वो इन्तजार में , 
हर आहट पर अब उसकी नजर है।  

लूट लिया था उसका महल , 
उसके ही अपनों ने , 
धोखा दिया था किसी ने उसको, 
जिस पर उसको खुद से ज्यादा यकीन था। 

कितने ताने , 
कितने पहरे , 
कितने अत्याचार , 
कितनी जगहँसाई हुई थी।  

अब कहते है उस महल में , 
चुड़ैल रहती है , 
हर आने वाले पर  , 
चीखती -चिल्लाती और हँसती है।  

Thursday, June 13, 2019

बचपन की यारी


चल , भागते है 
कटी पतंग लाते है , 
आ जरा , पानी में छपकी , 
दोनों पैरो से लगाते है।  

थक गया , मेरे कंधे में हाथ रख , 
स्कूल जाते है , 
रास्ते में वो आम का पेड़ है न , 
दो चार आम चुराते है।  

फिक्र मत कर होम वर्क की , 
मैं भी फाड़ देता हूँ , 
चल , क्लास में दोनों , 
साथ में डाँट खाते है।  

आज मैं तेरी पसंद की सब्जी लाया हूँ , 
दोनों मिलकर खाएंगे , 
तेरे घर की रोटी में बहुत स्वाद है , 
मिलकर मौज उड़ायेंगे।  

जब मैं बड़ा होऊँगा , 
बहुत बड़ा आदमी बनूँगा , 
तू फिक्र मत कर , 
तुझे भी साथ रखूँगा।  

छुट्टी के बाद , 
साथ घर वापस जायेंगे , 
उसने कल पन्गा किया था न , 
आज उसको मिलकर मजा चखायेंगे।  

देखना , एक दिन हमारा राज होगा ,
हमारी दोस्ती पर नाज होगा , 
छू लेंगे आसमान भी  , 
जब तू मेरे साथ होगा।  

फोटो साभार - गूगल 

Tuesday, June 4, 2019

सोचो , हम क्या देकर जायेंगे ?


दूषित जल ,
कंक्रीट के जंगल ,
जहरीली हवा ,
अनुपजाऊ  जमीन ,
विषाक्त फल।

छोड़ जायेंगे इनके सहारे ,
बंद कमरे ,
गैजेट्स ,
एटम बम ,
कृत्रिम साँसे ,
अदकच्चा , अदपक्का जीवन। 

शेखी हमारी ,
उन्नति की ,
नई पीढ़ी को ,
पंगु कर जायेगी ,
प्रकृति से दूर ,
कृत्रिम दुनिया में ,
कब तक जीवित ,
रह पायेगी।

Monday, June 3, 2019

इनायत


हौंसला चट्टानों से टकराने का ,
                                     हम भी रखते हैं ,                                        
जिम्मेदारियों ने धार कुछ ,
कुंद कर दी। 

अकेले दुनिया नापने की हिम्मत ,
हम भी रखते है ,
साथ लेकर चलने की कवायद ने ,
चाल मंद कर दी। 

हवा में उड़ने की ख्वाइश ,
हम भी रखते है ,
जमीन से जुड़े रहने की नसीहत,
पँखो को परवाज भरने नहीं दी। 

शिकायतें बहुत रही ज़िन्दगी से ,
हमें भी ,
मगर इनायतों को गिना तो ,
वो सब पर भारी निकली। 

Tuesday, May 28, 2019

लहरें

लहरें , 
पानी की हो ,
या ,
यादों की , 
बहा ले जाती है , 
सब कुछ , 
और जब तन्द्रा टूटती है , 
तब , 
बहुत आगे निकल जाने का , 
एहसास , 
एकाकीपन , 
और आगे बढ़ने की, 
मजबूरी , 
या 
उम्मीदों का अपनापन।   

Friday, May 24, 2019

जीत


जीत , 
चाहे छोटी हो या , 
बड़ी , 
सब कुछ छुपा लेती है , 
कमियाँ , 
खामियाँ , 
अवगुण , 
क्यूंकि , 
जीत की परत , 
बहुत मोटी होती है , 
वह सब कुछ, 
अपने नीचे , 
छुपाकर , 
बस , 
ऊपरी सतह पर , 
मेहनत , 
जज्बा , 
जूनून , 
और हौंसला , 
दिखाती है, 
जीत , बस , 
जीत होती है , 
और , 
बहुत जरुरी होती है।   

Tuesday, May 21, 2019

गुरुर


मत इतराना अपने गुरुर पर ,
वक्त के आगे ये कुछ भी नहीं ,
देखा है मिट्टी में मिलते ,
रावण को और सिकंदर को भी।  

कर्मो की लकीरें ही,
याद रहती है जमाने को ,
जीये तो कृष्ण भी थे ,
और कंस भी।  

Friday, May 3, 2019

लोकतंत्र




लोकतंत्र की जब अवधारणा की होगी ,
कितनी गजब रही होगी ,
जनता से ,
जनता द्वारा ,
जनता के लिए ,
सेवक चुने जायेंगे ,
सोचकर ही जनता की बाँछे खिली होंगी। 

हम ही शासक ,
हम ही प्रजा ,
हमारे कानून ,
हमारे नियम ,
कोई भेदभाव नहीं ,
सबको समान अवसर ,
किताबो में यही परिभाषा उकेरी होगी। 

यथार्थ में ,
नेता ही सबकुछ ,
नया क्षत्रप हो गया ,
जनता की भागीदारी ,
बस वोट तक सीमित ,
बाकि लोकतंत्र ,  किताबो तक ही रह  गया।   


Friday, April 26, 2019

नन्ही चिड़िया



नन्ही चिड़िया ढूंढ रही , 
कहीं तो मिले उसे छाँव , 
पेड़ो की डालियाँ कट गयी , 
बेचारी अब कहाँ जाय।  

पोखर , तालाब 
नदी ,  नाले सब सुख गए , 
कहाँ तक अब पंख फड़फड़ाय , 
बेरहम सूरज कुछ तो तरस खा , 
अब ये नन्ही चिड़िया कहाँ जाये। 

आग बरसा रही किरणे , 
धरती बन रही शोला , 
घर के मुंडेर रहे नहीं अब , 
कहाँ अब अपना घौंसला बनाये , 
अब ये नन्ही चिड़िया कहाँ जाये।

उड़ने से पहले सोचे , 
कहीं कोई डाल मिल जाये , 
दूर तक फैला बंजर , 
इस तपती गर्मी में , 
नन्हे पँख झुलस जाय, 
अब ये नन्ही चिड़िया कहाँ जाये।

किससे अपना दर्द कहें , 
कुछ समझ न आये , 
मृगतृष्णा सी प्यास उसकी , 
दूर दूर भटकाये ,
अब ये नन्ही चिड़िया कहाँ जाये।

बनाओ तुम अट्टालिकाएं , 
करो प्रकृति से खिलवाड़ , 
वृक्ष न बचेंगे धरा पर गर तो , 
तुम्हारा भी होगा ऐसा ही हाल , 
सोचो और बताओ , 
अब ये नन्ही चिड़िया कहाँ जाये।

Wednesday, April 17, 2019

प्राइवेट कर्मचारी


घुटती ज़िन्दगी ,
बेदम साँसे ,
लड़खड़ाते कदम ,
टूटते शब्द
उनींदी  ऑंखें
आँखों के नीचे घेरे ,
माथे पर बल ,
लटका हुआ चेहरा ,
आधे अधूरे सपने ,
दौड़ता भागता जिस्म ,
थोड़ा छटपटाहट ,
थोड़ा बेचैनी ,
आधा अधूरा विश्वास ,
नकली सी हँसी ,
घबराया मन ,
कंधे पर लटकता बैग ,
हाथ में टिफ़िन ,
बड़बड़ाता मुँह ,
घडी पर नजर ,
ऑफिस से आता हुआ ,
एक प्राइवेट कर्मचारी।


Image source - Google 

Sunday, April 7, 2019

मताधिकार - जनाधिकार





लोकतंत्र का आधार ,
मताधिकार - जनाधिकार ,
सोच विचारकर बटन दबाना ,
होगा इससे ही भविष्य साकार। 

सियासत की ये कुँजी ,
एक एक मत जरुरी ,
जनता की , जनता द्वारा , जनता से सरकार बने ,
लोकतंत्र की पूँजी । 

सुनना सबकी ,
करना मन की ,
देश प्रगति पथ पर आगे बढ़े ,
यह ध्यान रखना है जरुरी । 

उठो , जागो और विचारो ,
लोकतंत्र का ये महापर्व है ,
अगले पाँच वर्षो का भविष्य
आपके वोट से ही तय होना है।