Wednesday, December 25, 2019

न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है





जब कभी अपनी हारो की सोचता हूँ , 
उस एक जीत के आगे सब फीका नजर आता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है। 

कभी शिकायतों का पुलिंदा जब खोलूं  , 
रहमतो का पलड़ा ज्यादा भारी नजर आता है  ,
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

छाया हो घुप्प अँधेरा राहो में , 
टिमटिमाता कोई जुगनू नजर आता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

जब देखता हूँ मानवता पर संकट के बादल , 
किसी फ़रिश्ते का किस्सा पढ़ने में आ जाता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

देकर कभी थोड़ा निराशा के बादल , 
फिर किरणों से आकाश भर देता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

जब भी उठने लगता है विश्वास उस पर , 
उसका कोई चमत्कार आँखों के आगे आ जाता है  , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

रिश्तो से जब मन भर भर जाता है , 
कोई अजनबी सा रहनुमा बन खड़ा मिलता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  

जब कभी अपने वजूद पर संशय   ,
उम्मीदों , दुआओं और आशाओ का अम्बार नजर आता है, 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है। 

उठ ही जाती है कलम बार बार , 
जब भावनाओ का ज्वार उठता है , 
न जाने मेरा ईश्वर क्या चाहता है।  



फोटो आभार - उमेश मेहरा ( मेरा छोटा भाई ), इसी छायाचित्र ने मुझे ये पंक्तियाँ लिखने के लिए विवश किया।  

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