देख पिता का संताप , देवव्रत को बड़ा विषाद हुआ ,
क्या उनके हस्तिनापुर आने से ही महाराज का ये हाल हुआ
,
तरसा जिनके स्नेह के लिये पूरे पच्चीस बरस ,
मिलन पर ये कैसा तुषारापात हुआ।
पुत्र तो पिता
को सुःख देने के लिये होता है ,
एक जनक के लिये पुत्र वर्तमान , भविष्य होता है ,
पूत सपूत वंश का अभिमान होता है ,
पूत कपूत वंश का कलंक होता है ।
परशुराम शिष्य
निकले ढूँढने समाधान ,
संकट आ गया उनके सामने महान ,
जो हो स्वंय गंगा पुत्र , वो क्यों हो विचलित,
बदलने को आतुर सब विधान।
ले जल हाथ में,साक्षी बने अरुण –वरुण-व्योम ,
ठहर गया सारा चर-अचर जगत तमाम ,
करने चला शांतनु पुत्र, आज प्रण महान ,
पिता के सुख के लिए भविष्य का बलिदान।
प्रण करता हूँ - आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा ,
हस्तिनापुर राजसिंहासन का ताउम्र सेवक रहूँगा ,
सूर्य बदल दे रास्ता अपना , चन्द्रमा कलाएँ भूल जाये
,
अटल रहेगा प्रण देवव्रत का , जब तक प्राण तन से न जाये।
जिसके सिर मुकुट सजना था हस्तिनापुर का ,
जिसकी भुजाओं में अकूत बल , मस्तक पर तेज था ,
अस्त्र -शस्त्र , वेदों में निपुण , नीतियों का मर्मज्ञ
था ,
किस्मत की लेखी पर कहाँ उसका वश चलना था।
हे ! विधाता - ये क्या कर दिया तूने , शान्तनु को पश्चताप
हुआ ,
हस्तिनापुर के युवराज ने सब कुछ एक पल में त्याग दिया ,
जोड़कर अपने सब पुण्य कर्मों को , एक आशीष दिया ,
ईच्छा मृत्यु का वरदान , और नाम " भीष्म " दे
दिया।
सत्यवती का अपना रुख , शांतनु समय का इक मोहरा था,
निर्णय ये इतना सहज न था, कौन जानता था आगे क्या होना
था ,
परिस्थितयों के वश लिया गया निर्णय ,काल की एक चाल थी ,
किसे पता था - महाभारत की नींव उसी दिन पड़ चुकी थी।